राकेश कुमार अग्रवाल
कहा जाता है कि भारत उत्सवों का देश है . उत्सवधर्मिता यहां के बाशिंदों के रग रग में समाई है . उत्सव मनाने का हम भारतीय कोई न कोई बहाना ढूंढ ही लेते हैं .
विभिन्न धर्मों एवं मत मतांतर के लोग इस देश में रहते हैं इसलिए बारहों महीने यहां कोई न कोई उत्सव देश के किसी न किसी कोने में मन रहा होता है .
कोरोना महामारी के कारण लगभग 8 माह से देश में उत्सवों की रंगत और रौनक सोशल व फिजीकल डिस्टेंसिंग को मैनटेन रखने के कारण फीकी पड गई थी . धैर्य की इस परीक्षा में देशवासी खरे भी उतरे . जब उन्होंने रामनवमी , गणेशोत्सव , रक्षा बंधन , नवरात्र , दुर्गा पूजा , दशहरा रामलीलाओं का आयोजन , जगन्नाथ रथ यात्रा , मुस्लिमों के ईद , बकरीद , मोहर्रम और बारावफात , गर्मियों की शादी की सहालक , देश के विभिन्न भूभागों में लगने वाले मेलों के आयोजन सभी कोरोना महामारी के कारण नहीं मनाए गए .
आमतौर पर उत्सवों का तात्पर्य घर की आकर्षक साज सज्जा , रंगोली बनाना , वंदनवार लगाना , विविध प्रकार के व्यंजनों का आनंद , नए वस्त्रों का पहनना , गीत संगीत की धुनों पर थिरकना व मिलकर सुस्वादु व्यंजनों का आनंद उठाने के अलावा एक दूसरे के यहां जाकर मुबारक बाद देने एवं उपहारों का आदान प्रदान किया जाता है . व्यक्तिगत उत्सव के रूप में इंसान जन्मदिन और शादी की सालगिरह जैसे आयोजन करता है जिसमें चुनिंदा मित्रों एवं निकट संबंधियों को निमंत्रित किया जाता है . पारिवारिक समारोहों में शादी विवाह , बच्चे का जन्म और इससे जुडे विविध आयोजनों में घर परिवार के अलावा जिनसे नजदीकी संबंध होते हैं उन्हें आमंत्रित किया जाता है . लेकिन धार्मिक समारोहों में उस धर्म से जुडे सभी लोग मिल जुलकर भव्य आयोजन कर सामूहिक रूप से उत्सव का लुत्फ उठाते हैं .
कृषि प्रधान रहे इस देश में फसल कटकर आने पर किसान उत्सव मनाता है देश का कोई प्रांत ऐसा नहीं है जहां पर उत्सव मनाने की परम्परा न हो . उत्सव केवल खुशियों के नहीं गम के भी मनाए जाते हैं . मुस्लिमों का मोहर्रम पर्व एक तरह से गम का त्योहार है . और तो और हिंदुओं में पितृ पक्ष , तेरहवीं और श्राद्ध जैसी रस्में भी गम से जुडी हैं . जिस देश में गम को भी पर्व के रूप में सेलीब्रेट किया जाता है . एक दूसरे को बुलाने व भोज की परम्परा हो वहां पर आठ माह तक देशवासियों की सभी तरह की गतिविधियों पर कोरोना ने बंदिश लगा दी थी . सर्दियों की दस्तक के साथ ही धुंध , धुँआ , व प्रदूषण की चर्चा जोर पकड लेती है . दीपावली आते आते यह चर्चा राष्ट्रव्यापी समस्या बन जाती है . पराली जलाने के कारण तीन चार वर्षों से किसान भी प्रदूषण के निशाने पर आ गए हैं . दीपावली पर्व भारतीय जनमानस में सबसे बडे पर्व के रूप पांच दिनों तक पंचपर्व के रूप में मनाया जाता है . गुजरात में तो दीपावली पर्व वहां के नववर्ष के रूप में मनाया जाता है . हर घर में सजावट व रोशनी के अलावा यह पर्व खरीदारी के त्योहार के रूप में जाना जाता है . धनतेरस पर्व पर पूरे उत्तर व मध्य भारत में किसी नई वस्तु , बर्तन या सोने चांदी की खरीदारी जरूर की जाती है .
केन्द्र व प्रदेश की सरकारों ने भी लाॅकडाउन को अनलाॅक में तब्दील कर दिया है . जिसके संकेत साफ हैं कि अब देशवासी कम से कम एक पर्व तो मनाकर आठ महीने की उदासी को जीवंतता में बदल लें . बाजार में जो रंगत और रौनक है अर्थव्यवस्था में जो उछाल आया है वह अनायास नहीं बल्कि आठ माह बाद पहली बार लोगों को खुलकर खर्च करने का त्योहार के नाम पर बहाना जो मिला है .
एक तरफ हम कहते हैं कि जीने के हैं चार दिन या चार दिन की जिंदगानी है तो हम इंसानों को मानसिक रूप से भयाक्रांत करने पर क्यों तुले हुए हैं ? देश में शिक्षा का ग्राफ बढा है हर हाथ में स्मार्ट फोन और हर घर में टेलीविजन है क्या हम को लगता है कि इंसान अपनी सेहत के बारे में नहीं जानता व समझता है ? या उसे घर में कैद करके रखना इसका समुचित उपाय है ? जहां तक प्रदूषण का सवाल है आम इंसान कितना प्रदूषण फैलाता है क्या इसका कोई लेखा जोखा है ? बढती जनसंख्या पर अंकुश नहीं लगाया जाएगा तो बढती हुई आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए चल रही औद्योगिक इकाइयों को क्या ठप कर दिया जाएगा ? आयात के मुकाबले हमारा निर्यात कम है जब उत्पादन नहीं करेंगे तो निर्यात कैसे करेंगे ? बेहतर तो यह होगा कि प्रदूषण के नाम पर उत्सवधर्मिता पर लगाम लगाने के बजाए जनसंख्या नियंत्रण को प्रभावी बनाया जाए साथ में औद्योगिक विकास का ढांचा समान रूप से देश के सभी भूभाग में विकसित किया जाए तो इससे प्रदूषण पर भी लगाम लगेगी और समान विकास की अवधारणा को भी बल मिलेगा . तभी उत्सवों को निर्द्वंद रूप से मना पायेंगे .