जब सत्ता रूठती है तब ऐसा ही होता है

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राकेश कुमार अग्रवाल
शुक्रवार को सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय ने दो अलग अलग महत्वपूर्ण फैसले दिए हैं . सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस डी वाई चन्द्रचूड व जस्टिस इंदिरा बनर्जी की पीठ ने पत्रकार अर्नब गोस्वामी के मामले में सभी अदालतों को नसीहत दी है कि सभी का दायित्व यह सुनिश्चित करना है कि राज्य द्वारा उत्पीडन के खिलाफ नागरिक की स्वतंत्रतता की रक्षा करे , क्योंकि इसके परिणाम बहुत गंभीर हैं .
दूसरा फैसला बाॅम्बे हाइकोर्ट से आया . अभिनेत्री कंगना रानौत के बंगले में बृहन्मुंबई महानगर पालिका ( बीएमसी ) द्वारा की गई तोडफोड को अवैध ठहराते हुए बीएमसी को मुआवजा देने के आदेश दिए . कोर्ट के न्यायमूर्ति एस जे काथावाला और न्यायमूर्ति आर आई छागला की पीठ ने कहा कि ” हम किसी नागरिक के खिलाफ प्रशासन को बाहुबल का उपयोग करने की मंजूरी नहीं दे सकते . कोर्ट की पीठ ने बंगले के हिस्से को ध्वस्त करने की कार्यवाही को द्वेषपूर्ण बताते हुए कार्यवाही कानून के दायरे में होनी चाहिए .
दोनों प्रकरणों में न्यायालयों के दखल के पूर्व ही सरकार और प्रशासन अपना बदला भांज चुके थे . दरअसल देखा जाए तो सत्ता का मिजाज ही प्रतिशोधात्मक होता है . वह एक सीमित समय तक अपनी आलोचना बर्दाश्त करती है इसके बाद प्रतिशोध लेने के लिए उत्पीडन पर उतर आती हैै . जरूरी नहीं है कि हर उत्पीडन और प्रतिशोध के पीछे आलोचना ही हो , सरकार के मन मुताबिक न चलने , सरकार के उलट नई लाइन पकडने या सत्ता को जिससे भी खतरा महसूस होता है सरकारें और सत्ता उसे सबक सिखाने पर उतारू हो जाती हैं .
याद करिए 2 जून 1995 का उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का स्टेट गेस्ट हाउस काण्ड . कांड की पृष्ठभूमि के पीछे बसपा का सपा के साथ गठबंधन की सरकार से अलग होने के फैसले को लेकर मीरा बाई मार्ग पर स्थित स्टेट गेस्ट हाउस में चल रही मीटिंग में सपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं का वह हल्ला बोल था जिसमें बसपा नेत्री मायावती को भी नहीं बख्शा गया था . गेस्ट हाउस के कमरा नंबर एक में ठहरी मायावती को भी पीटा गया उनके कपडे फाड डाले गए थे . जबकि तमाम बसपा नेता लहूलुहान हो गए थे . इस हमले के पीछे कारण सपा के हाथ से सत्ता का निकलना था . क्योंकि भाजपा ने बसपा को सरकार बनाने के लिए उसे समर्थन देने को हरी झंडी दे दी थी . दरअसल भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए 1993 में सपा के मुलायम सिंह यादव और बसपा के मान्यवर कांशीराम के बीच जुगल बंदी हुई थी . सपा ने 256 व बसपा ने 164 सीटों पर चुनाव मैदान में अपने प्रत्याशी उतारे थे . 422 सीटों पर हुए इन चुनावों में सपा ने 109 व बसपा ने 67 सीटों पर जीत हासिल की थी . गर्मियां आते आते दोनों दलों के रिश्ते खत्म हो चुके थे. बसपा ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया था . भाजपा ने राज्यपाल मोतीलाल वोरा को मायावती को सरकार बनाने के लिए समर्थन देने की चिट्ठी सौंप दी थी . गेस्ट हाउस में हुई धींगामुश्ती में भाजपा विधायक ब्रह्मदत्त द्विवेदी अपनी जान पर खेल कर बसपा नेत्री मायावती को बचा कर लाए थे. मायावती इस घटना को कभी नहीं भूल पाई . इस घटना के बाद वे कठोर हो गईं . मायावती घटना के अगले ही दिन यूपी की सीएम बन गईं . वे 18 अक्टूबर 1995 तक प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं . तब से मायावती चार बार उ.प्र . की मुख्यमंत्री बन चुकी हैं . मायावती और बसपा नेताओं पर हुआ यह हमला सत्ता समर्थित था क्योंकि गेस्ट हाउस की उस दिन पानी बिजली भी काट दी गई थी . पुलिस अधिकारियों ने किसी के फोन तक नहीं उठाए थे . सरकार से समर्थन वापसी की भनक लगते ही तात्कालिक तौर पर सपाइयों द्वारा उठाया गया हल्ला बोल का यह कदम पार्टी के लिए बहुत घातक साबित हुआ . अन्यथा इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि दोनों पार्टियों का गठबंधन यूपी ही नहीं देश की राजनीति पर भी असर डालता .
ऐसा ही एक वाकया तमिलनाडु में भी घटा था . जब 25 मार्च 1989 को तमिलनाडु विधानसभा में मुख्यमंत्री एम . करुणानिधि बजट पेश कर रहे थे. एआईडीएमके नेता जयललिता ने उनके फोन टैप किए जाने का आरोप लगाते हुए बहस की मांग की थी . जिसकी अनुमति स्पीकर ने नहीं दी थी . जब जयललिता सदन से बाहर जा रही थीं तभी डीएमके के एक विधायक ने सदन में उनकी साडी खींच दी उनका पल्लू नीचे गिर गया . जयललिता के लिए यह सब इतना अपमानजनक था कि उन्होंने कसम खाई थी कि जब तक महिलाओं का सम्मान सुरक्षित न होगा तब तक वे सदन में कदम नहीं रखेंगी . 24 जून 1991 को वह दिन भी आया जब जयललिता तमिलनाडु की सबसे कम उम्र की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं . जयललिता 6 बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनीं .
देखा जाए तो सत्ता का मिजाज ही ऐसा होता है जिसे न विरोध बर्दाश्त होता है न ही नाफरमानी . सत्ता का यह मिजाज कुछ समय तक विरोध को बर्दाश्त करता है इसके बाद सबक सिखाने पर उतर आता है . प्रशासनिक मशीनरी को आका के इशारे का इंतजार होता है . प्रशासनिक मशीनरी तो जैसे आकाओं के लिए बिछी खडी होती है . वह अपनी सीमाओं की परवाह न करते हुए बिना विरोधी को साम , दाम , दण्ड , भेद से सबक सिखाती है . जबकि लोकतंत्र का तकाजा भी यही है कि असहमति की आवाज को भी सुना जाए . न कि हर उठती हुई आवाज को डंडे के जोर पर या प्रशासनिक चाबुक चलाकर सबक सिखाया जाए . और यह जरूरी भी नहीं है कि हर बार जो तुमको हो पसंद वही बात की जाए , तुम दिन को रात कहो तो रात कहा जाए .

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