कृषि प्रधान देश में बदहाल… बेहाल किसान

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राकेश कुमार अग्रवाल
बचपन में पढा था कि भारत एक कृषि प्रधान देश है . भारत की अर्थ व्यवस्था खेती पर निर्भर है . देश मे किसानों के नाम पर दर्जनों योजनायें संचालित हैं हर सरकार किसान हितैषी होने का दम्भ भरती है लेकिन इस सबके बावजूद देश की राजधानी में लाखों किसान एक पखवाडे से ठंड में सडकों पर डेरा डाले हुए हैं .
कहां 2022 तक देश के किसानों की आय दोगुना करने की बात हो रही थी वहीं किसानों के लिए गेम चेंजर कहे जाने वाले कृषि क्षेत्र में सुधार वाले तीन कृषि अध्यादेशों को केन्द्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी मिलने के बाद किसानों का गुस्सा फूट पडा .
आजादी के समय दाने दाने को मोहताज देश के पास पेट भरने लायक भी अनाज पैदा नहीं होता था . एक तरह से देखा जाए तो अंग्रेजों ने गुलामी के दौर में बाँध और नहरों पर तो काफी काम किया लेकिन किसानों को उन्नतशील खेती की ओर उन्मुख करने में वे सफल नहीं हो पाए . लाल बहादुर शास्त्री के समय अमेरिका द्वारा देश को गेहूं देने से मना करने के बाद उन्होंने जय जवान जय किसान का नारा दिया . देशवासियों से उन्होंने हफ्ते में एक दिन व्रत रखने का आह्वान किया . इसके बाद देश में हरित क्रांति का आगाज हुआ . जिसका परिणाम यह हुआ है कि तिलहन , कपास , दलहन , केला , आम व पपीता के उत्पादन में भारत विश्व में सिरमौर बन गया जबकि मछली , चीनी , चावल , चाय व सब्जियों के उत्पादन में भारत दुनिया में दूसरे नंबर पर है . इस प्रगति में किसानों की मेहनत और उनके योगदान को कम करके नहीं आँका जा सकता है . क्योंकि यह वह दौर था जब खेती को सर्वोत्तम माना जाता था . आजादी के समय आजीविका का सबसे बडा माध्यम खेती था . जीडीपी में भी सबसे ज्यादा योगदान खेती का था . कहा भी जाता था कि
उत्तम खेती , मध्यम बान
अधम चाकरी , भीख समान
लेकिन बीते चार – पांच दशकों में उत्तम कही जाने वाली खेती – किसानी केवल जीवन यापन का जरिया बन कर रह गई जबकि सरकारी नौकरी अधम से ऐशोआराम की जिंदगी देने की गारंटी बन गई . जबकि जीडीपी में खेती का योगदान लगातार धीरे धीरे कम होता गया जो आज घटकर महज 17 फीसदी पर आ गया है .
पांच जून को तीनों कृषि अध्यादेशों को मंजूरी मिलने के बाद जुलाई के अंतिम सप्ताह में अखिल भारतीय किसान संघर्ष समिति कृषि अध्यादेशों के विरोध में खडी हो गई .चार माह बाद यह आँदोलन और विरोध प्रदर्शन राष्ट्रव्यापी हो गया . तमाम आरोपों – प्रत्यारोपों के बीच किसानों की तमाम शंकायें अभी भी बनी हुई हैं . जिन मुद्दों पर सबसे ज्यादा विरोध और असहमति के स्वर हैं उनमें विवादों के निपटारे को लेकर किया गया नया प्रावधान है जिसके तहत सब डिवीजनल मजिस्ट्रेट या फिर सुलह बोर्ड के जिम्मे विवादों के निपटारे का प्रावधान किया गया है जबकि किसान संगठन चाहते हैं कि विशेष न्यायाधिकरण या अदालतें ही विवादों का निपटारा करें . किसानों की इस मांग में बेजा कुछ भी नहीं है जिसे लेकर सरकार को इस संशोधन की जरूरत आन पडी . बल्कि इस नए प्रावधान से किसान कमजोर होगा और अंतत : उसे सुलह करने के लिए मजबूर होना पडेगा .
फसल बेचने व उसके नकद भुगतान का मुद्दा भी इतना पेचीदा नहीं है . हालांकि नकद भुगतान इतना सहज व आसान नहीं है . लेकिन यदि एक निश्चित समयावधि पर यदि किसान को फसल का भुगतान नहीं होता है तो पार्टी पर पेनाल्टी या रकम का ब्याज अदा करने जैसे प्रावधान किए जा सकते हैं ताकि किसानों को फसल का निश्चित समयावधि में गारंटी शुदा रूप से भुगतान हो सके . किसानों की एक बडी ही जायज मांग है जिस पर सरकार को तुरंत तवज्जो देना चाहिए . किसान जिस खरीदार को अपनी फसल दे रहा है उस खरीदार के पते के बारे में किसानों को जानकारी तक न हो यह कहां तक उचित है ? फिर भी सरकार को यदि लगता है कि खरीदार के पते की प्राइवेसी रहना जरूरी है तो किसान अपने बकाया भुगतान के लिए कहां जाए ? या फिर यह भी हो सकता है कि सरकार किसान के बकाया भुगतान की गारंटी अपने सिर ले . आखिर किसान को माल की बिक्री के बाद दरबदर भटकना पडे यह कहां तक उचित है ? एमएसपी सबसे बडे विवाद का मुद्दा है . यह कितने दुर्भाग्य की बात है कि कृषि उत्पादकों को छोडकर देश में बाकी उत्पादक अपने उत्पादों की कीमत खुद तय करते हैं जबकि फल , सब्जी व अनाजों की कीमतें आज भी खरीदार लगाते हैं . यही कारण है कि किसान उत्पादक होने के बावजूद सिस्टम की सबसे कमजोर कडी है . जबकि एक उद्यमी अपने उत्पाद की कीमतें स्वयं तय करके कुछ ही सालों में टर्न ओवर बढाकर उसे दुगना , तिगना करता जाता है . पंजाब , हरियाणा जैसे राज्यों के किसानों को छोड दिया जाए तो अन्य राज्यों में किसानों के लिए बीमारी व बच्चों के शादी , विवाह , शिक्षा किसी आपदा से कम नहीं होते हैं ..एम एस पी लागू होने के बावजूद भी किसानों को उसका लाभ मिलना सहज नहीं होता है . केवल बडे व दबंग किसान ही एमएसपी पर अपनी जिंस बेच पाते हैं . अन्य किसानों के लिए एमएसपी पर फसल बेचना कटु अनुभव से कम नहीं होता है . घर परिवार भोजन पानी छोडकर किसानों को कई कई दिन फसल बेचने के लिए जद्दोजहद करनी पडती है . फिर भी यदि एमएसपी लागू नहीं होगी तो किसानों को लागत से भी कम पर फसल बेचने को मजबूर होना पड सकता है . देश का किसान आजादी के सात दशक बाद भी इतना मजबूत नहीं हो सका है कि वह बाजार या कारपोरेट हाउस पर अपनी शर्तें थोप सके . फसल बिक्री में संरक्षण भी एक बडा मुद्दा है . सरकार ‘ एक देश एक बाजार ‘ की अवधारणा को लागू करना चाहती है . लेकिन यहां पर भी किसानों के समक्ष वही संकट मुंह बाये खडा है कि बाहर का बडा किसान आकर उसके यहां अपनी फसल बेच जाएगा लेकिन स्थानीय किसान की फसल खरीदी भी जाएगी या नहीं इसकी क्या गारंटी है ? इससे स्थानीय छोटा किसान जो संसाधन विहीन है वह तो बेमौत मारा जा सकता है क्योंकि उसकी ऐसी स्थिति नहीं है कि वह अन्यत्र ले जाकर अपना माल बेच सके .
देश का 52 फीसदी से अधिक किसान कर्जदार है . देश के 87 फीसदी किसान ऐसे हैं जिनके पास दो हेक्टेयर से कम जमीन है इनमें से दस फीसदी के पास भी ट्रेक्टर नहीं है ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जो किसान खुद कमजोर है वह क्या अपनी शर्तों पर कारपोरेट ग्रुप या बडे आढतियों पर दबाव बनाने में सक्षम है ? जरूरत है पहले किसान को मजबूत किया जाए तभी नए प्रावधान उन पर थोपे जाएँ .

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