राजनीतिक अस्थिरता बनी नेपाली लोकतंत्र का सच

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राकेश कुमार अग्रवाल

पडोसी देश नेपाल एक बार फिर से राजनीतिक अस्थिरता का शिकार हो गया है . राजनीतिक रूप से घिरे प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली द्वारा त्यागपत्र देने के बजाए अप्रत्याशित रूप से देश की संसद को भंग कर दिया गया . राष्ट्रपति ने भी प्रतिनिधि सभा को भंग करने की प्रधानमंत्री ओली की सिफारिश को स्वीकारते हुए मंजूरी दे दी . जिससे देश में चार माह बाद मध्यावधि चुनाव कराने का रास्ता साफ हो गया है .
पडोसी देश नेपाल में गणतंत्र अभी शैशवावस्था में है . नवम्बर 2006 में उस समय की बहुदलीय सरकार और पूर्व विद्रोही माओवादियों के बीच हुए ऐतिहासिक शांति समझौते पर हस्ताक्षर के बाद नेपाल से राजशाही का अंत हुआ था और नेपाल का एक गणतांत्रिक राष्ट्र के रूप में उदय हुआ था . नेपाल में राजशाही का अंत कोई सामान्य घटनाक्रम नहीं था . शांति समझौते पर तत्कालीन प्रधानमंत्री गिरजा प्रसाद कोइराला व माओवादी नेता पुष्प कमल दहल प्रचंड ने दस्तखत किए थे . शांति समझौते के बाद नेपाल के राजा ज्ञानेन्द्र को काठमांडू के नारायणहिति राजमहल से बेदखल कर दिया गया था . लोकतंत्र आने के पहले एक दशक तक नेपाल में पीपुल्स वाॅर चला था जिसका नेतृत्व विद्रोही माओवादियों ने किया था . हालांकि इसके बावजूद नेपाल में शांति नहीं हुई . 2006 – 07 में दक्षिणी नेपाल के मधेशी नेता सडकों पर उतरे थे . हिंसक गृहयुद्ध में डेढ हजार से अधिक को जान से हाथ धोना पडा था . माओवादियों के हिंसक विद्रोह के खत्म होने के बाद मई 2008 में पहली संविधान सभा का निर्वाचन हुआ था . मई 2008 में देश में पहली बार चुनाव हुए पूर्व विद्रोही माओवादियों को सत्ता मिली थी क्योंकि वे सबसे बडी पार्टी बनकर उभरे थे.
आबादी के लिहाज से नेपाल का दुनिया में 49 वां स्थान है देश की आबादी लगभग पौने तीन करोड है . दिसम्बर 2017 में हुए चुनावों में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल ( यूएमएल ) और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल ( माओवादी सेंटर ) गठबंधन ने 275 में से 174 सीटों पर जीत हासिल की थी . सीपीएन ( यूएमएल ) का नेतृत्व के पी शर्मा ओली व सीपीएन ( माओवादी सेंटर ) का नेतृत्व पुष्प कमल दहल प्रचंड कर रहे थे . ओली ने दूसरी बार नेपाल में प्रधानमंत्री पद की कमान संभाली थी इसके पहले वे 11 अक्टूबर 2015 से 3 अगस्त 2016 तक देश के प्रधानमंत्री रह चुके थे . नेपाल में ओली सरकार के जाने के बाद मध्यावधि चुनाव की घोषणा भी कर दी गई है कि आगामी नए वर्ष में अप्रैल – मई में देश में मध्यावधि चुनाव होंगे . सवाल यह है कि आखिर ऐसे क्या हालात पैदा हो गए कि जिसके चलते ओली को इस तरह का आत्मघाती कदम उठाना पडा . क्योंकि संसद का अभी दो वर्ष का कार्यकाल बाकी था . नेपाल में 2022 में चुनाव होना थे . मध्यावधि चुनाव थोपे जाने का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है . तीन अलग अलग याचिकायें कोर्ट में दाखिल की जा चुकी हैं .
के पी शर्मा ओली के प्रतिनिधि सभा को आकस्मिक भंग करने के निर्णय के पीछे दरअसल उनके लिए वे फैसले हैं जिनके कारण वे पार्टी व नेपाल में अलोकप्रिय होते जा रहे थे . रही सही कसर चीन और भारत जैसे दो ताकतवर पडोसी देशों से सामंजस्य बनाने के बजाए प्रधानमंत्री ओली उनकी राजनीति का मोहरा बन बैठे . सीपीएन ( यूएमएल ) और सीपीएन ( माओवादी सेंटर ) का आपस में विलय हो जाने के बाद पार्टी दो तिहाई बहुमत से सत्ता में थी इसलिए पार्टी की सरकार को किसी भी तरह से गिरने का खतरा नहीं था . लेकिन ओली ने पार्टी और सरकार को विश्वास में लिए बगैर फैसले लेने शुरु कर दिए . और तो और उलजुलूल बयानबाजी से भी वे नहीं चूके . जिस कारण पार्टी के मुखिया पुष्प कमल दहल प्रचंड, व माधव नेपाल आदि नेता उनके विरुद्ध हो गए थे . ओली से असंतुष्ट नेता उनसे इस्तीफा देने का दबाव बना रहे थे . ओली के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी भी हो गई थी . दरअसल ओली चीन के प्रभाव में थे इसलिए उन्होंने भारत से पंगा लेने का कोई मौका नहीं छोडा था . जबकि भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पडोसी देश नेपाल से संबंध मधुर बने रहें इसके लिए तीन सदस्यीय शिष्ट मंडल जिसमें विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला , भारतीय विदेशी गुप्तचर एजेंसी ( राॅ ) के प्रमुख सामंत गोयल एवं सेना प्रमुख एम एम नरवाने को नेपाल भेजा था ताकि दोनों राष्ट्रों के बीच पनपे मतभेदों को दूर किया जा सके . क्योंकि नेपाल को भारत द्वारा बनाई जा रही कैलाश – मानसरोवर सडक निर्माण को लेकर आपत्ति थी . प्रधानमंत्री ओली मानते थे कि भगवान राम का जन्म अयोध्या नहीं नेपाल में हुआ था . नेपाल नए नक्शे में भारतीय क्षेत्रों को दर्शा रहा था . इन सब के पीछे चीनी राजदूत के उस दखल को जिम्मेदार माना जा रहा था जिसके प्रभाव में प्रधानमंत्री ओली थे . नेपाल में संसद को इस तरह भंग किए जाने से संवैधानिक प्रावधानों को लेकर बहस अलग छिड गई है . एकाएक सरकार भंग करने के फैसले से चीन को झटका लगना स्वभाविक है . बेहतर तो यह होता कि ओली प्रतिनिधि सभा को भंग कर मध्यावधि चुनाव कराने की सिफारिश के बजाए स्वयं पद से हट जाते . और नए नेता के हवाले नेपाल की कमान सौंप देते . इससे देश में न चुनाव की जरूरत पडती न सरकार की अस्थिरता का कोई संकट था . गणराज्य बनने के बाद नेपाल में सरकारें टिकाऊ साबित नहीं हो रही हैं . राजनीतिक अस्थिरता के कारण नेपाल में एक वर्ग को राजशाही की याद आने लगी है .
नेपाल का बदलते राजनीतिक घटनाक्रम पर अब केवल देश के लोगों की ही नहीं पडोसी देशों की भी नजर है .

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