धर्माचार्य ओम प्रकाश पांडे अनिरुद्ध रामानुज दास
सनातन धर्म अनादि काल से चला आ रहा है । अपने धर्म का कट्टरता से पालन करें और दूसरे धर्म या संप्रदाय का सम्मान करें। क्योंकि इस संसार के एकमात्र रचयिता भगवान श्रीमन्नारायण है उनके अतिरिक्त और कोई दूसरा नहीं है? भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं हे अर्जुन समस्त धर्मों का परित्याग करके मेरी शरण में आओ मैं तुम्हारे भार को अपने कंधे पर ढोउंगा, सभी उन्हीं की संतान है। धर्म का पालन कर्म योग है धर्म का उत्थान परमात्मा का कार्य है।
सनातन परंपरा में चार पुरुषार्थ माने गए हैं, जिनमें धर्म प्रमुख है (अन्य तीन – अर्थ, काम और मोक्ष हैं, जो धर्म पर ही निर्भर हैं)। धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है। कणाद ऋषि ने वैशेषिक सूत्रों में धर्म को इस प्रकार परिभाषित किया है — “यतो अभ्युदयनिश्रेयस सिद्धिः स धर्म”, यानि जिस से अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्धि हो, वह धर्म है। (अभ्युदय का अर्थ है — सर्वतोमुखी निरंतर उन्नति और विकास) (निःश्रेयस का अर्थ है – सब तरह का कल्याण, मोक्ष, मंगल, मुक्ति)
मनु-स्मृति में मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं, जिनको धारण करना “धर्म” है —
“धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम्॥”
(धृति (धैर्य), क्षमा, दम (इंद्रियों पर नियंत्रण), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरंग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन), और अक्रोध (क्रोध न करना), — धर्म के ये दस लक्षण हैं। इनको धारण करना “धर्म” है।
“अधर्म” क्या है? —
धर्म के जो लक्षण दिये हैं, उनका विलोम अधर्म है।
जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये – यह धर्म की कसौटी है। एक सुभाषित है —
“श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ॥”
अर्थात् – धर्म का सर्वस्व क्या है, यह सुनो और सुनकर उस पर चलो। अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये।
रामचरितमानस के अनुसार —
“परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥”
इसी बात को वेदव्यास जी ने इस तरह कहा है —
“अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्। परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम्॥”.
सनातनीय शास्त्रों के अनुसार, धर्म मनसा, वाचा, कर्मणा होता है। यह केवल क्रिया से सम्बन्धित नहीं है।
महाभारत के वनपर्व (३१३/१२८) में कहा है —
“धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्॥”
इसका भावार्थ है कि धर्म उसी की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करता है।.
गीता में भगवान कहते हैं —
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥४-७॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥४-८॥”
अर्थात् – “हे भारत ! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं स्वयं को प्रकट करता हूँ॥
साधु पुरुषों के रक्षण, दुष्कृत्य करने वालों के नाश, तथा धर्म संस्थापना के लिये, मैं प्रत्येक युग में प्रगट होता हूँ॥”
सत्य-सनातन-धर्म की पुनःप्रतिष्ठा और वैश्वीकरण सुनिश्चित है। पिछले कुछ कालखंड में सनातन धर्मावलम्बियों के पतन का एकमात्र कारण काल के प्रभाव से तमोगुण की प्रधानता थी। इसलिए सबसे बड़ी आवश्यकता तो तमोगुण से समाज की मुक्ति है। धर्मशिक्षा के अभाव में तमोगुण बहुत अधिक बढ़ गया है। यह तमोगुण ही हमारे के पतन का एकमात्र कारण था और है भी।
प्रकट रूप में सनातन धर्म के चार स्तम्भ हैं — आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों का सिद्धान्त, पुनर्जन्म, और ईश्वर के अवतारों में आस्था। जो भी इनको मानता है, वह स्वतः ही हिन्दू है।.
सनातनीय बालकों को आठ वर्ष की आयु से ही हठयोग व ध्यान आदि की शिक्षा देनी होगी। उन्हें सनातनीय संस्कारों, व धर्म के लक्षणों का ज्ञान देना होगा। धर्मग्रंथों का ज्ञान कहानियों के माध्यम से देना होगा।
हम हर दृष्टिकोण से शक्तिशाली और सत्यनिष्ठ बनें। सत्यनिष्ठा ही धर्मनिष्ठा है। हम शक्तिशाली होंगे तो समाज भी शक्तिशाली होगा यह प्रेम करेंगे तो हमारी मधुमती ऋतंभरा-प्रज्ञा जागृत होगी। साभार। जय श्रीमन्नारायण रिपोर्ट- अवनीश कुमार मिश्रा
सत्यनिष्ठा ही धर्मनिष्ठा
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