हल्द्वानी से 141 किलोमीटर दूर कौसानी हिम दर्शन और प्राकृतिक सुंदरता का एक पुराना ठौर है। यहां की सुंदरता से महात्मा गांधी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रकौसानी में बसीं सुमित्रानंदन पंत की कसैली यादें..हे। इसी सुंदर प्राकृतिक संपदा के बीच वर्ष 1900 में जन्म लेने वाले सुमित्रानंदन पंत हिंदी साहित्य के उपवन में ‘सुमन’ बनकर खिले। छायावादी युग के स्तंभ पुरुष कहे जाने वाले पंत जी की प्रतिभा का प्रस्फुटन 7 वर्ष की अवस्था से ही प्रारंभ हो गया। निरंतर छह दशक तक साहित्य की सेवा करने वाले प्रकृति प्रेमी सुमित्रानंदन पंत हिंदी प्रेमियों के दिलों पर आज भी राज करते हैं।
कच्ची उम्र में अपनी कविता ‘गिरजे का घंटा’ लिखने वाले पंत जी का साहित्य में भली-भांति पदार्पण ‘हार’ नामक उपन्यास से ही हुआ। वह खुद मानते हैं-‘रचना उसे कहते हैं जिसमें किसी प्रकार का विधान, संयमन और तारतम्य हो। इस दृष्टि से मेरी सर्वप्रथम रचना कविता न होकर उपन्यास ही था।’ हालांकि साहित्य में उनकी प्रतिष्ठा कविताओं से ही हुई। उनकी कृतियों में आधुनिक हिंदी कविता का युग एक प्रतिबिंबित होता है। पंत जी की सौंदर्य से भरी कविता रूपी सूर्य की ‘रश्मियां’ हिंदी के हिम शिखरों को वैसे ही स्वर्णिम आभा से आलोकित करती हैं, जैसे हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों को नित्य प्रति भगवान भास्कर।
उषा सुवर्ण सा वर्ण लिए वर्णनातीत
फूले फूलों में फूल रही है झूल झूल..
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अरे, ये पल्लव बाल!
सजा सुमनों के सौरभ हार
गुंथते वे उपहार..
न पत्रों का मर्मर संगीत
न पुष्पों का रस, राग, पराग
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मधुरिमा के मधुमास !
मेरा मधुकर का सा जीवन
कठिन कर्म है, कोमल है मन;
विपुल मृदुल सुमनों से सुरभित
विकसित है विस्तृत जग उपवन!
सरीखी असंख्य पंक्तियों से प्रकृति और मानव अंतर की सारी सौंदर्यमयता जीवंतता प्राप्त करती रही हैं। वीणा, ग्रन्थि, पल्लव, गुंजन, निर्झरी एवं ज्योत्सना में संग्रहीत कविताएं मननीय-पठनीय और अंतरमन को झकझोरती हैं। वर्ष 1979 में सात खंडों में प्रकाशित ‘समित्रानंदन पंत ग्रंथावली’ पंत जी के समग्र साहित्य से गुजरने का अच्छा अवसर देती है। कौसानी की उर्वरा धरा ने साहित्य को सुमित्रानंदन दिया और हिंदी कविता को धन्य करने वाले पंतजी ने कौसानी को नई पहचान पर नई कौसानी क्या पंतजी को कोई पहचान दे रही है? कौसानी को नजदीक से देखने, सुनने और समझने वाला शायद ही इस सवाल का जवाब ‘हां’ में दे। अधिकांश यही कहेंगे- नहीं।
होर्डिंग न कोई संकेतक
कौसानी के जिस घर में सुमित्रानंदन पंत ने जन्म लिया। जिस आंगन में खेले, पले और बढ़े वहां उनकी यादों को सहेजने को एक संग्रहालय सरकार ने उनके निधन के तीन वर्ष बाद वर्ष 1979 में ही बना दिया पर क्या बना देना ही पर्याप्त है? व्यक्ति की प्रतिभा-गरिमा के अनुरूप संचालन की व्यवस्था का उत्तरदायित्व निभाना भी तो जरूरी है! कौसानी के मुख्य चौराहे से चार पहिया वाहनों का एक रास्ता सागर होटल होते हुए अनासक्ति आश्रम की ओर जाता है। पैदल यात्रियों के लिए पहाड़ी जीनों वाले सागर होटल के दूसरे रास्ते पर पंत संग्रहालय पड़ता है । यह स्थानीय लोगों या उन लोगों के लिए, जिन्हें पंत संग्रहालय जाना ही जाना है। चौक पर पंत संग्रहालय का रास्ता बताने वाला ना कोई संकेतक है न कोई होर्डिंग। यही हाल सागर होटल की तरफ भी। कौसानी में ‘हिल व्यू’ वाले होटलों के अनेक होर्डिंग दो कदम-दर-कदम दिखेंगे पर पंत संग्रहालय का पता बताने वाला कोई चिन्ह शायद ही कहीं! पंत जी के काम- नाम का प्रभाव इतना जरूर है कि संग्रहालय का पता बताने में कोई हिचकता नहीं।
प्रचार का अभाव
चौक से 52 सीढ़ियां चढ़ते हुए दाएं हाथ पर पंत संग्रहालय है। संग्रहालय पर पहली नजर कोई प्रभाव नहीं छोड़ती। पंत जी से प्रभावित हिंदी के जिस पाठक को उस पावन भूमि को प्रणाम करना है, वह तो पता पूछते-पूछते पंत संग्रहालय तक पहुंच सकता है पर कौसानी आने वाले आम-ओ-खास सैलानी को लुभाने का कोई कारगर उपाय सरकार न पहाड़ के उस समाज ने किया है, जिसे पंत जी पर गर्व है। प्रचार की कमी का ही प्रभाव है कि कौसानी आने वाला हर सैलानी पंत संग्रहालय पहुंच नहीं पाता। जब पहुंचेगा ही नहीं तो देखेगा कैसे? इस साल नवंबर में बमुश्किल सौ सैलानी ही पंत संग्रहालय देखने पहुंचे होंगे। 23 तारीख के हमारे भ्रमण के वक्त तक यह संख्या मात्र 82 थी।
साहित्य प्रेमियों के भावों की अनदेखी
सैलानियों या कहें पंत से प्रभावित लोगों के यहां न आने की दूसरी बड़ी वजह व्यवस्था का अभाव और आगंतुक रजिस्टर (विजिटर्स बुक) की अनदेखी भी कही जा सकती है। 3 अक्टूबर को पंत संग्रहालय देखने पहुंचे रुड़की के अंकित सैनी और ऋतु सैनी द्वारा विजिटर्स बुक में दर्ज की गई इस बात पर गौर किया जाना जरूरी है-‘इस म्यूजियम को और भी अधिक आकर्षक बनाने की आवश्यकता है। यहां पंत जी की पुस्तकों को खरीदने की सुविधा भी उपलब्ध कराई जानी चाहिए।’ जुलाई को पंत संग्रहालय देखने पहुंचे मिर्जापुर (उत्तर प्रदेश) के मयंक कृष्ण सिंह लिखते हैं-‘पंत संग्रहालय आना रोमांचक अनुभव रहा पर यदि इंटरनेट पर इसका और अधिक प्रचार प्रसार किया जाए तो संभवतः साहित्य प्रेमी और अधिक आएं और इससे प्राप्त होने वाले राजस्व से संग्रहालय का और अधिक विकास हो। प्रणाम बाबा पंत।’ ऐसी ही एक साहित्य प्रेमी देविका ठाकुर के भाव हैं-‘यहां आना अविस्मरणीय अनुभव है पर किताबों को पढ़ने की व्यवस्था की अपेक्षा करती हूं।’ प्रचार-प्रसार की कमी, रास्तों और पुस्तकों के रखरखाव की ओर चंडीगढ़ से आए सत्येंद्र सिंह रावत एवं उनकी धर्मपत्नी रजनी रावत के लिखित भाव भी इसी तरफ इशारा करते हैं।
पंत संग्रहालय में ही ‘पंत ग्रंथावली’ के दर्शन दुर्लभ
पिछले करीब 2 वर्षों से गोविंद बल्लभ पंत संग्रहालय- अल्मोड़ा की देखरेख में संचालित पंत संग्रहालय के एक विशाल कक्ष में पंत जी द्वारा प्रयोग में लाई गई कई वस्तुएं प्रदर्शित हैं-यथा, अलमारी, कुर्सी, मेज, तख्त, सदरी, कोट, टेबल लैंप, चश्मा और छड़ी से पंत जी की कड़ी को जोड़ने का प्रयास तो सराहनीय है पर प्रेरक नहीं। संग्रहालय के कर्मचारियों द्वारा हर आने वाले को बताया यही जाएगा कि पंत जी जिस अलमारी का उपयोग करते थे और उसमें उनकी पुस्तकें ही प्रदर्शित हैं लेकिन हमने खुद देखा कि प्रदर्शित उन पुस्तकों में पंतजी की किताबें कम दूसरे लेखकों की ज्यादा ही हैं। संग्रहालय की देखरेख करने वाले ज़िम्मेदारों को संग्रहालय में संग्रहीत किताबों की सही संख्या तक नहीं पता। अनुमानित तौर पर ढाई हजार किताबें इस संग्रहालय में बताई जाती हैं लेकिन ‘पंत ग्रंथावली’ के दर्शन ही संग्रहालय में दुर्लभ हैं। साहित्य के शीर्ष पुरुष की स्मृति में बने इस संग्रहालय में कानून की किताबें भी एक अलमारी में रखी दिख जाएंगी। सवाल यही कि साहित्य के इस संग्रहालय में कानून की किताबों का क्या काम? धर्म-अध्यात्म तो फिर भी चल सकता है, क्योंकि हिमालय ऋषि-मुनियों और अवतारी पुरुषों की प्राचीन धरा है।
छायावादी कवि और छायाकार!
बात यहीं तक नहीं। पंत संग्रहालय का संचालन वर्तमान में चतुर्थ श्रेणी के चार कर्मचारियों के हाथ में है। अब आप स्वयं सोचिए, क्या यह वाजिब है? यह स्थिति यह सोचने को मजबूर करती है कि सरकार पंत संग्रहालय के प्रति कितनी संजीदा है? जीबी पंत संग्रहालय से कौसानी के पंत संग्रहालय का संचालन देखने वाले चौहान जी की इस बात पर आप हैरान हो सकते हैं- ‘पंत जी छायावादी कवि हैं इसलिए यहां से एक सीनियर छायाकार को देखरेख के लिए तैनात करने का आदेश दिया गया है’। पर इस सीनियर छायाकार ने भी अभी तक पंत संग्रहालय में ज्वाइन नहीं किया। लगता है कि ‘बीमारी’ के बहाने वह भी जाने से हिचक ही रहा। यह भी एक बड़ी वजह है कि पुस्तकालय की किताबों का रखरखाव यहां आने वालों को ‘उचित’ महसूस नहीं होता। आमतौर पर माना जाता है कि सरकारी ‘असरकारी’ नहीं होता। पंत संग्रहालय भी इसी की पुष्टि करता प्रतीत होता है।
पिक्चर अभी बाकी है?
संग्रहालय में सब खराब हो ऐसा भी नहीं है। संग्रहालय के प्रवेश द्वार पर ही पंत जी की एक काले पत्थर की सजीव मूर्ति स्थापित की गई। अच्छा यह है कि किसी राजनेता के बजाए इस मूर्ति का अनावरण पंत जी की 90वीं जयंती (20 मई 1990) पर वयोवृद्ध साहित्यकार एवं इतिहासवेत्ता पंडित नित्यानंद मिश्र के कर कमलों से कराया गया। पंत संग्रहालय के रिनोवेशन के लिए करीब 45 लाख रुपए की परियोजना पर काम चल रहा है। इसके तहत पंत जी के मुख्य आवास के कमरों को ‘वुडेन वाल’ के रूप में सजाया गया है। बताया तो यह गया है कि परियोजना के तहत डिस्प्ले बोर्ड, आगंतुकों के बैठकर पुस्तकों के पढ़ने की व्यवस्था भी प्रस्तावित है, पर क्या होगा? यह भविष्य ही बताएगा। यह परियोजना संग्रहालय आने वाले साहित्य प्रेमियों की विजिटर्स बुक में ही दर्ज भावनाओं की पूर्ति करेगी या बस बजट की खपत? पिक्चर अभी बाकी है।
क्यों न इस तरह संवारें संग्रहालय?
ब्रिटेन के महान साहित्यकार शेक्सपियर के जन्म स्थान पर पुस्तकालय के साथ उनके नाटकों की एक फिल्म बड़े से टीवी की स्क्रीन पर चलती रहती है। संग्रहालय पुस्तकालय में उनकी पुस्तकों के कवर फोटो भी डिस्प्ले किए गए हैं। एक तरीका यह भी हो सकता है कि प्रकृति प्रेमी कवि सुमित्रानंदन पंत की रचनाओं के आडियो मध्यम आवाज में प्रसारित किए जाए तो यहां आने वाले लोगों के आकर्षण में वृद्धि संभव है। कई पर्यटन स्थलों के ‘लाइट एंड साउंड शो’ की तर्ज पर भी पंत जी की यादों को सहेजने का सहज प्रयास किया जा सकता है।
कौसानी में पंतजी की कसैली हो रही यादों के सिलसिले को पंत जी की इन पंक्तियों से ही विराम-
‘अलि ! इन भोली बातों को
अब कैसे भला छिपाऊं !
इस आंख मिचौली से मैं
कह? कब तक जी बहलाऊं?
निर्झरी (1922)’
पंत जी की पावन स्मृतियों को शत्-शत् नमन!
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गौरव अवस्थी ( जानमाने पत्रकार और साहित्यकार )