राकेश कुमार अग्रवाल
70 के दशक में राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म आनंद सुपरहिट साबित हुई थी . फिल्म का एक डायलाग आज भी लोगों की जुबांन पर है कि हम सब इस रंगमंच की कठपुतलियां हैं . जिंदगी और मौत तो ऊपर वाले के हाथ में है बाबूमोशाय . लेकिन कोविड 19 के बाद लगता है कि जिंदगी और मौत का ठेका ऊपरवाले ने कोरोना वायरस को दे दिया है . कोरोना चोरी चोरी चुपके चुपके से वार करता है और सामने वाले की सांसों पर झपट्टा मारकर उन्हें अपने कब्जे में कर लेता है .
हजारों वर्षों के बाद इंसान इतना तो समझ गया है कि जीवन और मौत का फर्क क्या है फासला केवल चंद सांसों के थमने का सीधा सा गणित है . सांस रुकी , सांस थमी और खेल खत्म . और तो और देश और दुनिया मे तमाम देशों में इंसान को सबसे बडी सजा में कोर्ट सांसें अवरुद्ध करने का ही फैसला तो सुनाती है . जिसके तहत गले में रस्सी का फंदा डालकर बंदे की सांसें रोक दी जाती हैं . सांस रुकते ही बंदे का चंद सेकेंडों में काम तमाम हो जाता है . और वह छटपटाकर तडपते हुए जान से हाथ धो बैठता है . इसलिए जीवन जीने के लिए जिन तीन चीजों की सबसे ज्यादा जरूरत होती है उनमें रोटी , कपडा और मकान से भी ज्यादा जरूरी होती है आग , हवा और रोशनी . इसी हवा का एक महत्वपूर्ण तत्व है ऑक्सीजन .
सांसों का कारोबार मेडीकल बिजनेस का स्याह पक्ष है . जब मरीज को सांस लेने में तकलीफ होती है तब उसे कृत्रिम तरीके से ऑक्सीजन पहुंचाई जाती है . वेंटीलेटर एक ऐसा ही उपकरण ईजाद हुआ है जिसमें सांसों की डोर टूटने नहीं पाती है . केवल मेडीकल साइंस में सांस की महत्ता है ऐसा नहीं है . पूरा योग व्यायाम भी सांसों को मजबूती प्रदान करने की बात करता है . योगी लोग तो इसे प्राणवायु भी कहते हैं . जिसमें सांसों से जुडी एक्सरसाइज को बढावा दिया जाता है . कपालभाति समेत तमाम योग व्यायाम इसी सांस की महत्ता को बताते हैं .
साहित्यकारों और फिल्मी गीतकारों ने तो सांस की महत्ता पर बहुत कुछ रच डाला है . कोरोना की आहट के बहुत पहले 1990 में समीर ने आशिकी फिल्म में एक गीत लिखा था जो बहुत ही लोकप्रिय हुआ था . गीत के बोल थे
सांसों की जरूरत है जैसे जिंदगी के लिए
बस एक सनम चाहिए आशिकी के लिए ..
जाम की जरूरत है जैसे बेखुदी के लिए
बस एक सनम चाहिए आशिकी के लिए
2012 में यश चोपडा बैनर की फिल्म आई थी जब तक है जान . जिसमें गुलजार का लिखा एक गाना बहुत लोकप्रिय हुआ था . यह गाना भी सांसों की ही बात कर रहा था कि
सांस में तेरी सांस मिली तो मुझे सांस आई
रूह ने छू ली जिस्म की खुशबू तू जो पास आई
जिद फिल्म में अरिजीत सिंह ने ऐसा ही एक गाना गुनगुनाया था कि
सांसों को जीने का इशारा मिल गया
डूबा मैं तुझमें तो किनारा मिल गया
जिंदगी का पता दोबारा मिल गया
तू मिला को खुदा का सहारा मिल गया .
कोरोना का कहर लगातार जारी है . अगर आँकडों की मानें तो भारत में अब तक एक करोड 37 लाख लोग कोरोना पाजिटिव निकल चुके हैं . देश में कोरोना के चलते एक लाख 71 हजार लोगों की सांसें कोरोना थाम चुका है . ब्राजील में भी भारत के समान ही कोरोना के मामले सामने आ चुके हैं . जबकि अमेरिका में कोरोना पाजिटिव केसों की संख्या 3 करोड 20 लाख पहुंच चुकी है . कोरोना की भयावहता है कि थमने का नाम नहीं ले रही है . मौतों का ग्राफ इस तेजी से बढ रहा है कि कभी कभी तो ऐसा लगने लगता है जैसे कोरोना भी टी 20 की तरह झटपट लोगों को बोल्ड आउट करने की फिराक में है . श्मशान स्थलों पर शवों की अंत्येष्टि के लिए लम्बी वेटिंग चल रही है . हालात इतने विकट हैं कि हर कोई डरा हुआ है . कोविड टेस्ट की पाजिटिव रिपोर्ट सुनकर ही व्यक्ति का दिल बैठने लगता है . दो तीन दशक पहले जो खौफ कैंसर का था उससे भी ज्यादा खौफ कोरोना का पसर गया है .
कोरोना का यह वायरस शरीर के श्वसन तंत्र पर शिकंजा कसता है . फेफडे काम करना बंद कर देते हैं . जिससे सांसों की डोर टूटने लगती है .
सांसों की इस महत्ता को लोगों को समझने की जरूरत है . सेहत और स्वास्थ्य को समझने की जरूरत है . क्योंकि कोरोना से ज्यादातर मौतें अधेड और वृद्धजनों की हो रही है . इनमें भी ज्यादातर लोग कई कई बीमारियों से पहले से ग्रसित थे . मशीनीकरण के चलते शारीरिक श्रम से इंसान का नाता टूट रहा है . शरीर की सेहत के लिए शारीरिक श्रम की महत्ता को दरकिनार नहीं किया जा सकता है यही शारीरिक मेहनत फेफडों को ताकत प्रदान करती है .
सांसों के मोल को समझिए . अभी तक सांसे हरने का काम ऊपर वाले का माना जाता था . पृथ्वी पर न्यायाधीश ही नहीं वरन कोरोना भी यही काम कर रहा है . वह मोहलत भी दे रहा तो सांसें छीन भी रहा है . एकल परिवारों ने इस संकट को और भी विकराल किया गया है क्योंकि संकट काल में ये और भी असहाय हो जाते हैं . इर्द गिर्द कोई संबल नजर नहीं आता . हताशा और निराशा में इंसान खुद ही जिंदगी हार रहा है . कोरोना का एक सबक यह भी है कि संयुक्त परिवार के सिस्टम पर वापस लौटिए . सांसों की डोर परिवार में भी थमी रहती है . परिवार के लोग भी संभाले रहते हैं सांसों की डोर को . वे आपके इम्युनिटी बूस्टर भी हैं .
जीवन और मौत कोरोना के हाथ में भी है बाबू मोशाय
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