जूनियर हाईस्कूल बेलीगंज में मनाया गया राष्ट्रीय विज्ञान दिवस

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रायबरेली । जूनियर हाईस्कूल बेलीगंज में राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के अवसर पर बताया गया कि 28 फ़रवरी 1928 के दिन भौतिक विज्ञान के गंभीर विषय पारदर्शी पदार्थ से गुजरने पर प्रकाश की किरणों में आने वाले बदलाव पर की गई इस महत्वपूर्ण खोज के दिन को ही राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है। विद्यालय में सर सी वी रमन के रमन प्रभाव और उनके जीवन चरित्र पर एक फिल्म दिखाकर प्रश्नोत्तरी भी करायी गयी। छात्रा पिंकी ने सी वी रमन के डाक टिकट का संग्रह दिखाया। छात्र अमन, शाबिर और शिवांशु ने बैटरी सेल, मोटर के माध्यम से फूलों का पंखा बनाया जिसमे सफ़ेद व गुलाबी फूल लगाकर सुंगधित हवा देने वाला पंखा चलाकर दिखाया। इस अवसर पर इंचार्ज प्रधानध्यापक अवधेश कुमारी मिश्रा, रीनू सिंह, अमिता पांडेय, स्वयं प्रभा मौजूद रहीं। शिल्पा, प्रियंका, काजोल, मुस्कान, नैंसी, रिमझिम, ने कार्यक्रम में सक्रिय सहयोग किया।

कौन थे सी वी रमन

चंद्रशेखर वेंकट रामन का जन्म तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली शहर में 7 नवम्बर 1888 को हुआ था, उनके पिता कॉलेज में अध्यापन का कार्य करते थे और वेतन था मात्र दस रुपया। उनके पिता को पढ़ने का बहुत शौक़ था, घर में ही एक छोटी-सी लाइब्रेरी बना रखा थी। रामन का विज्ञान और अंग्रेज़ी साहित्य की पुस्तकों से परिचय बहुत छोटी उम्र से ही हो गया था। संगीत के प्रति उनका लगाव और प्रेम भी छोटी आयु से आरम्भ हुआ और आगे चलकर उनकी वैज्ञानिक खोजों का विषय बना। वह अपने पिता को घंटों वीणा बजाते हुए देखते रहते थे। जब उनके पिता तिरुचिरापल्ली से विशाखापत्तनम में आकर बस गये तो उनका स्कूल समुद्र के तट पर था। उन्हें अपनी कक्षा की खिड़की से समुद्र की अगाध नीली जलराशि दिखाई देती थी। इस दृश्य ने इस छोटे से लड़के की कल्पना को सम्मोहित कर लिया। बाद में समुद्र का यही नीलापन उनकी वैज्ञानिक खोज का विषय बना।
केवल ग्यारह वर्ष की उम्र में वह दसवीं की परीक्षा में प्रथम आये।

प्रथम श्रेणी में अकेले हुए उत्तीर्ण

रामन ‘प्रेसीडेंसी कॉलेज’ में बी. ए.1905 में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने वाले वह अकेले छात्र थे और उन्हें उस वर्ष का ‘स्वर्ण पदक’ भी प्राप्त हुआ। उन्होंने ‘प्रेसीडेंसी कॉलेज’ से ही एम. ए. भौतिक शास्त्र में एडमिशन लिया। एम. ए. करते हुए रामन कक्षा में यदा-कदा ही जाते थे। प्रोफ़ेसर आर. एल. जॉन्स जानते थे कि यह लड़का अपनी देखभाल स्वयं कर सकता है। इसलिए वह उसे स्वतंत्रतापूर्वक पढ़ने देते थे। आमतौर पर रामन कॉलेज की प्रयोगशाला में कुछ प्रयोग और खोजें करते रहते। वह प्रोफ़ेसर का ‘फ़ेबरी-पिराट इन्टरफ़ेरोमीटर का इस्तेमाल करके प्रकाश की किरणों को नापने का प्रयास करते।

18 वर्ष की आयु में दिया पहला योगदान

रमन ने अपने परिणामों को शोध पेपर की शक्ल में लिखकर लन्दन से प्रकाशित होने वाली ‘फ़िलॉसफ़िकल पत्रिका’ को भेजा। सन् 1906 में पत्रिका के नवम्बर अंक में उनका पेपर प्रकाशित हुआ। विज्ञान को दिया रामन का यह पहला योगदान था। उस समय वह केवल 18 वर्ष के थे।

लेखा विभाग था सपना

रामन भारतीय लेखा सेवा IAAS विभाग में काम करना चाहते थे इसलिये वे प्रतियोगी परीक्षा में सम्मिलित हुए। इस परीक्षा से एक दिन पहले एम. ए. का परिणाम घोषित हुआ जिसमें उन्होंने ‘मद्रास विश्वविद्यालय’ के इतिहास में सर्वाधिक अंक अर्जित किए और IAAS की परीक्षा में भी प्रथम स्थान प्राप्त किया। 6 मई, 1907 को कृष्णस्वामी अय्यर की सुपुत्री ‘त्रिलोकसुंदरी’ से रामन का विवाह हुआ, कुछ दिनों के बाद रामन ने एक और शोध पेपर लिखा और लन्दन में विज्ञान की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पत्रिका ‘नेचर’ को भेजा, रामन की प्रतिभा अद्वितीय थी। अध्यापकों ने रमन के पिता को सलाह दी कि वह रामन को उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेंज दें। यदि एक ब्रिटिश मेडिकल अफ़सर ने बाधा न डाली होती तो रामन भी अन्य प्रतिभाशाली व्यक्तियों की तरह देश के लिए खो जाते। डॉक्टर का कहना था कि स्वास्थ्य नाज़ुक है और वह इंग्लैंड की सख़्त जलवायु को सहन नहीं कर पायेंगे। रामन के पास अब कोई अन्य रास्ता नहीं था। वह ब्रिटिश सरकार द्वारा आयोजित प्रतियोगी परीक्षा में बैठे। इसमें उत्तीर्ण होने से नौकरी मिलती थी। इसमें पास होने पर वह सरकार के वित्तीय विभाग में अफ़सर नियुक्त हो गये। रामन यह सरकारी नौकरी करने लगे। इसमें उन्हें अच्छा वेतन और रहने को बंगला मिला।

घर मे बनाई थी प्रयोगशाला

विज्ञान की उन्हें धुन थी। उन्होंने घर में ही एक छोटी-सी प्रयोगशाला बनाई। जो कुछ भी उन्हें दिलचस्प लगता उसके वैज्ञानिक तथ्यों की खोज में वह लग जाते। रामन की खोजों में उनकी युवा पत्नी भी अपना सहयोग देंती और उन्हें दूसरे कामों से दूर रखतीं। वह यह विश्वास करती थीं कि वह रामन की सेवा के लिये ही पैदा हुईं हैं। रामन को महान् बनाने में उनकी पत्नी का भी बड़ा हाथ है।

“जब नोबेल पुरस्‍कार की घोषणा की गई थी तो मैं ने इसे अपनी व्‍यक्तिगत विजय माना, मेरे लिए और मेरे सहयोगियों के लिए एक उपलब्धि – एक अत्‍यंत असाधारण खोज को मान्‍यता दी गई है, उस लक्ष्‍य तक पहुंचने के लिए जिसके लिए मैंने सात वर्षों से काम किया है। लेकिन जब मैंने देखा कि उस खचाखच हॉल मैंने इर्द-गिर्द पश्चिमी चेहरों का समुद्र देखा और मैं, केवल एक ही भारतीय, अपनी पगड़ी और बन्‍द गले के कोट में था, तो मुझे लगा कि मैं वास्‍तव में अपने लोगों और अपने देश का प्रतिनिधित्‍व कर रहा हूं। जब किंग गुस्‍टाव ने मुझे पुरस्‍कार दिया तो मैंने अपने आपको वास्‍तव में विनम्र महसूस किया, यह भावप्रवण पल था लेकिन मैं अपने ऊपर नियंत्रण रखने में सफल रहा। जब मैं घूम गया और मैंने ऊपर ब्रिटिश यूनियन जैक देखा जिसके नीचे मैं बैठा रहा था और तब मैंने महसूस किया कि मेरे ग़रीब देश, भारत, का अपना ध्वज भी नहीं है।” – सी.वी. रमण

इसलिए मिला नोबल

‘इण्डियन एसोसिएशन फॉर कल्टिवेशन ऑफ साइंस’ संस्था सन् 1876 से देश में वैज्ञानिक खोजों के विकास के लिए स्थापित थी। कई कारणों से इस इमारत का वास्तविक उपयोग केवल वैज्ञानिकों के मिलने या विज्ञान पर भाषण आदि के लिए होता था। संस्था की प्रयोगशाला और उपकरणों पर पड़े-पड़े धूल जमा हो रही थी। जब रामन ने प्रयोगशाला में प्रयोग करने चाहे तो सारी सामग्री और उपकरण उनके सुपुर्द कर दिये गये। इस तरह परिषद में उनके वैज्ञानिक प्रयोग शुरू हुए और उन्होंने वह खोज की जिससे उन्हें ‘नोबेल पुरस्कार’ मिला।

रामन सुबह साढ़े पाँच बजे परिषद की प्रयोगशाला में पहुँच जाते और पौने दस बजे आकर ऑफिस के लिए तैयार हो जाते। ऑफिस के बाद शाम पाँच बजे फिर प्रयोगशाला पहुँच जाते और रात दस बजे तक वहाँ काम करते। यहाँ तक की रविवार को भी सारा दिन वह प्रयोगशाला में अपने प्रयोगों में ही व्यस्त रहते। वर्षों तक उनकी यही दिनचर्या बनी रही। उस समय रामन का अनुसंधान संगीत-वाद्यों तक ही सीमित था। उनकी खोज का विषय था कि वीणा, वॉयलिन, मृदंग और तबले जैसे वाद्यों में से मधुर स्वर क्यों निकलता है। सन 1921 में ऑक्सफोर्ड, इंग्लैंड में हो रही यूनिवर्सटीज कांग्रेस के लिए रमन को निमन्त्रण मिला। उनके जीवन में इससे एक नया मोड़ आया। सामान्यतः समुद्री यात्रा उकता देने वाली होती है क्योंकि नीचे समुद्र और ऊपर आकाश के सिवाय कुछ दिखाई नहीं देता है। लेकिन रामन के लिए आकाश और सागर वैज्ञानिक दिलचस्पी की चीज़ें थीं। भूमध्य सागर के नीलेपन ने रामन को बहुत आकर्षित किया। वह सोचने लगे कि सागर और आकाश का रंग ऐसा नीला क्यों है। नीलेपन का क्या कारण है रामन जानते थे लॉर्ड रेले ने आकाश के नीलेपन का कारण हवा में पाये जाने वाले नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के अणुओं द्वारा सूर्य के प्रकाश की किरणों का छितराना माना है। लॉर्ड रेले ने यह कहा था कि सागर का नीलापन मात्र आकाश का प्रतिबिम्ब है। लेकिन भूमध्य सागर के नीलेपन को देखकर उन्हें लॉर्ड रेले के स्पष्टीकरण से संतोष नहीं हुआ। जहाज़ के डेक पर खड़े-खड़े ही उन्होंने इस नीलेपन के कारण की खोज का निश्चय किया। वह लपक कर नीचे गये और एक उपकरण लेकर डेक पर आये, जिससे वह यह परीक्षण कर सकें कि समुद्र का नीलापन प्रतिबिम्ब प्रकाश है या कुछ और। उन्होंने पाया कि समुद्र का नीलापन उसके भीतर से ही था। प्रसन्न होकर उन्होंने इस विषय पर कलकत्ते की प्रयोगशाला में खोज करने का निश्चय किया। कलकत्ता लौटने पर उन्होंने समुद्री पानी के अणुओं द्वारा प्रकाश छितराने के कारण का और फिर तरह-तरह के लेंस, द्रव और गैसों का अध्ययन किया। प्रयोगों के दौरान उन्हें पता चला कि समुद्र के नीलेपन का कारण सूर्य की रोशनी पड़ने पर समुद्री पानी के अणुओं द्वारा नीले प्रकाश का छितराना है। सूर्य के प्रकाश के बाकी रंग मिल जाते हैं।इस खोज के कारण सारे विश्व में उनकी प्रशंसा हुई। उन्होंने वैज्ञानिकों का एक दल तैयार किया, जो ऐसी चीज़ों का अध्ययन करता था। ‘ऑप्टिकस’ नाम के विज्ञान के क्षेत्र में अपने योगदान के लिये सन् 1924 में रामन को लन्दन की ‘रॉयल सोसाइटी’ का सदस्य बना लिया गया। एक बार जब रामन अपने छात्रों के साथ द्रव के अणुओं द्वारा प्रकाश को छितराने का अध्ययन कर रहे थे कि उन्हें ‘रामन इफेक्ट’ का संकेत मिला। सूर्य के प्रकाश की एक किरण को एक छोटे से छेद से निकाला गया और फिर बेन्जीन जैसे द्रव में से गुज़रने दिया गया। दूसरे छोर से डायरेक्ट विज़न स्पेक्ट्रोस्कोप द्वारा छितरे प्रकाश—स्पेक्ट्रम को देखा गया। सूर्य का प्रकाश एक छोटे से छेद में से आ रहा था जो छितरी हुई किरण रेखा या रेखाओं की तरह दिखाई दे रहा था। इन रेखाओं के अतिरिक्त रामन और उनके छात्रों ने स्पेक्ट्रम में कुछ असाधारण रेखाएँ भी देखीं। उनका विचार था कि ये रेखाएँ द्रव की अशुद्धता के कारण थीं। इसलिए उन्होंने द्रव को शुद्ध किया और फिर से देखा, मगर रेखाएँ फिर भी बनी रहीं। उन्होंने यह प्रयोग अन्य द्रवों के साथ भी किया तो भी रेखाएँ दिखाई देती रहीं। रामन अपनी खोज की घोषणा करने से पहले बिल्कुल निश्चित होना चाहते थे। इन असाधारण रेखाओं को अधिक स्पष्ट तौर से देखने के लिए उन्होंने सूर्य के प्रकाश के स्थान पर मरकरी वेपर लैम्प का इस्तेमाल किया। वास्तव में इस तरह रेखाएँ अधिक स्पष्ट दिखाई देने लगीं। अब वह अपनी नई खोज के प्रति पूर्णरूप से निश्चिंत थे। यह घटना 28 फ़रवरी सन् 1928 में घटी। अगले ही दिन वैज्ञानिक रामन ने इसकी घोषणा विदेशी प्रेस में कर दी। प्रतिष्ठित पत्रिका ‘नेचर’ ने उसे प्रकाशित किया। रामन ने 16 मार्च को अपनी खोज ‘नई रेडियेशन’ के ऊपर बंगलौर में स्थित साउथ इंडियन साइन्स एसोसिएशन में भाषण दिया। इफेक्ट की प्रथम पुष्टि जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सटी, अमेरिका के आर. डब्लयू. वुड ने की। अब विश्व की सभी प्रयोगशालाओं में ‘रामन इफेक्ट’ पर अन्वेषण होने लगा। यह उभरती आधुनिक भौतिकी के लिये अतिरिक्त सहायता थी। श्री वेंकटरामन के विषय में ख़ास बात है कि वे बहुत ही साधारण और सरल तरीक़े से रहते थे। वह प्रकृति प्रेमी भी थे। वे अक्सर अपने घर से ऑफिस साइकिल से आया जाया करते थे। वे दोस्तों के बीच ‘वैंकी’ नाम से प्रसिद्ध थे। उनके माता-पिता दोनों वैज्ञानिक रहे हैं। एक साक्षात्कार में वेंकटरामन के पिता श्री ‘सी. वी. रामकृष्णन’ ने बताया कि ‘नोबेल पुरस्कार समिति’ के सचिव ने लंदन में जब वेंकटरामन को फ़ोन कर नोबेल पुरस्कार देने की बात कही तो पहले तो उन्हें यकीन ही नहीं हुआ। वेंकट ने उनसे कहा कि ‘क्या आप मुझे मूर्ख बना रहे हैं?’ क्योंकि नोबेल पुरस्कार मिलने से पहले अक्सर वेंकटरामन के मित्र फ़ोन कर उन्हें नोबेल मिलने की झूठी ख़बर देकर चिढ़ाया करते थे।’ डॉ.रामन को उनके योगदान के लिए भारत के सर्वोच्च पुरस्कार भारत रत्न और नोबेल पुरस्कार, लेनिन पुरस्कार जैसे अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

रमन इफेक्ट ने दी खूब लोकप्रियता

रमन इफेक्ट की लोकप्रियता और उपयोगिता का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि खोज के दस वर्ष के भीतर ही सारे विश्व में इस पर क़रीब 2,000 शोध पेपर प्रकाशित हुए। इसका अधिक उपयोग ठोस, द्रव और गैसों की आंतरिक अणु संरचना का पता लगाने में हुआ। इस समय रामन केवल 42 वर्ष के थे और उन्हें ढ़ेरों सम्मान मिल चुके थे। रमन को यह पूरा विश्वास था कि उन्हें अपनी खोज के लिए ‘नोबेल पुरस्कार’ मिलेगा। इसलिए पुरस्कारों की घोषणा से छः महीने पहले ही उन्होंने स्टॉकहोम के लिए टिकट का आरक्षण करवा लिया था। नोबेल पुरस्कार जीतने वालों की घोषणा दिसम्बर सन् 1930 में हुई।

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