राकेश कुमार अग्रवाल
रिपब्लिक टीवी के एडीटर इन चीफ अर्नब गोस्वामी को महाराष्ट्र पुलिस द्वारा 2018 में मां – बेटे को खुदकुशी के लिए उकसाने के मामले में सुबह सवेरे घर से गिरफ्तार किए जाने के हाई वोल्टेज ड्रामे के बाद पत्रकारिता , सरकार व पुलिस के रवैये को लेकर पूरे देश में बहस सरगर्म हो गई है . कोई इसे आपातकाल की पुनरावृत्ति करार दे रहा है तो कोई इसे मीडिया पर सरकारी चाबुक बता रहा है . लेकिन इन सब के बीच में अब कौन सही और कौन गलत का सवाल नहीं रह गया है . सवाल यह है कि आखिर मीडिया इस हाल में पहुंचा कैसे ? क्या इसके लिए केवल राजनीतिज्ञ जिम्मेदार हैं ? क्या पत्रकार और पत्रकारिता कठघरे में है ? इस तरह के हालात के लिए हम पत्रकार किस हद तक जिम्मेदार हैं ? क्या लोकतंत्र का चौथा पाया अपनी भूमिका का सम्यक निर्वहन कर रहा है ? सवाल बहुत सारे हैं और अर्नव के बहाने ही सही हमें इन पर खुल कर चर्चा जरूर करनी चाहिए.
आजादी के पहले की पत्रकारिता औपनिवेशी शासन से देश को मुक्त कराने वाली मिशन मोड की पत्रकारिता थी . 1826 में जुगल किशोर सुकुल द्वारा कोलकाता से निकाले उदंत मार्तण्ड समाचार पत्र से हुई शुरुआत लगभग 200 वर्षों में तमाम तकनीकी पडावों को पार कर श्रव्य मीडिया ( रेडियो ) इसके बाद इलेक्ट्रानिक मीडिया ( विजुअल मीडिया ) , और अब सोशल मीडिया के रूप में मौजूद है .
तिलक , गोखले , दादाभाई नौरोजी , महात्मा गांधी , पं. जवाहर लाल नेहरू जैसे चिंतकों , विचारकों ने पत्रकारीय लेखनी को धार दी . 1924 में रेडियो के आविर्भाव के बाद 1930 में अंग्रेजों ने इसे अपने अधिकार क्षेत्र में ले लिया . 1936 में आल इंडिया रेडियो या आकाशवाणी का गठन हुआ . रेडियो पर पांच – दस मिनट के समाचारों का भी अपना महत्व था . लोग घडी का मिलान कर समाचार सुनते थे . जिससे उन्हें देश प्रदेश की जानकारी मिलती थी . समाचार पत्रों की उपयोगिता लगातार बनी रही . गणेश शंकर विद्यार्थी , माखनलाल चतुर्वेदी , मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने पत्रकारिता को ऊंचाइयां दीं . आजादी के बाद देश में पठन पाठन का तेजी से विकास हुआ . समाचार पत्र में गांवों – कस्बों की खबरें जरूर इक्का दुक्का और पांच सात दिन बाद छपती थीं लेकिन उन खबरों की मारक क्षमता होती थी . यही खबर का असर था जिससे पत्रकारिता के साथ लोगों का जुडाव हुआ था .
रेडियो मीडिया पूरी तरह सरकार के शिकंजे में था . प्रिंट मीडिया पर पहली बार शिकंजा आपातकाल के समय सामने आया जब सरकार खबरें सेंसर करने लगी. सरकार की खिलाफत करने वाले पत्रकारों को जेल के सीखचों में ठूंसा जाने लगा . उस समय 253 पत्रकारों को नजरबंद कर दिया गया . 7 विदेशी संवाददाताओं को निष्कासित कर दिया गया था एवं प्रेस परिषद को भंग कर दिया गया था .
दूरदर्शन के आगाज के बाद जैसे जैसे बुद्धू बक्से का प्रसार हुआ 90 के दशक में समाचारों की शुरुआत भी हुई . विनोद दुआ हिंदी में परख तो प्रणव राय अंग्रेजी में द वर्ल्ड दिस वीक जैसे समाचार आधारित कार्यक्रम लेकर आए . इसके बाद सरकार ने आर्थिक सुधारों की शुरुआत के साथ मीडिया हाउस में पूंजी निवेश व आईपीओ लाने का रास्ता खोला . पैसा आया तो पत्रकारिता की सूरत बदलने लगी . लाइव टेलीकास्ट जैसी तकनीक आने के बाद तो न्यूज चैनलों का आगाज गलाकाट होड में बदल गया . 2017 के आंकडों पर गौर करें तो देश में टेलीविजन चैनलों की संख्या 877 थी . इन 877 चैनलों में 389 चैनल न्यूज और समसामयिक सूचनाओं पर आधारित चैनल थे . इलेक्ट्रानिक मीडिया के आविर्भाव के बाद लग रहा था कि प्रिंट मीडिया पर संकट गहरा जाएगा लेकिन प्रिंट मीडिया में भी खासी ग्रोथ हुई . आज देश में पंजीकृत प्रकाशनों की संख्या 114820 से कहीं ज्यादा है . विभिन्न भाषाओं के देश में 70000 समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं . भारत के समाचार पत्र बाजार को विश्व का सबसे बडा समाचार पत्र बाजार माना जाता है . लेकिन न्यूज चैनलों ने पत्रकारिता की पूरी दिशा ही बदल दी . स्थिति तब और विकट हो गई जब खबरिया चैनल 24 घंटे के चैनलों में बदल गए . क्या चैनलों के पास 24 घंटे दिखाने के लायक खबरें हैं ? एक और विकट समस्या प्रोफाइल को लेकर थी . दिल्ली , मुम्बई से संचालित होने वाले न्यूज चैनलों के लिए गांवों , कस्बों व गरीब एवं मध्यम वर्ग से जुडी खबर लो प्रोफाइल मानी जाती है . ऐसे वर्ग से जुडी खबर दिखाने से न्यूज चैनल परहेज करते हैं . हाई प्रोफाइल वर्ग से जुडी खबरों को दिखाना . बडे शहरों एवं महानगरों की खबरों को फोकस करना इनकी नीति रही है . 24 घंटे के न्यूज चैनल के लिए जब 24 घंटे की न्यूज न मिली तो यहीं से शुरु हुआ खबरों के साथ खेलना . खबरों को अपने एजेंडे के अनुसार रंग दिया जाने लगा . रिपोर्टर कठपुतली बन गए . डेस्क और प्रबंधन खबरों पर हावी हो गया . क्योंकि प्रबंधन सत्ता और सरकार का बगलगीर हो गया . इन सबके बीच असल खबर और पत्रकारिता खो गई . हम सभी जानते हैं सत्ता और कुरसी का अपना मिजाज होता है . सत्ता की बर्दाश्त करने की एक सीमा होती है . संविधान में लोकतंत्र के तीन स्तंभों विधायिका , कार्यपालिका और न्याय पालिका का हवाला दिया गया है . मीडिया की उपयोगिता व वाॅचडाॅग की भूमिका के कारण अघोषित रूप से ही सही इसे चौथे स्तंभ का दर्जा मिलता रहा है क्योंकि पत्रकार अपनी आचार संहिता के दायरे में रह कर अपने पत्रकारीय धर्म का निर्वहन कर रहे थे. मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि जब पत्रकारिता की शिक्षा नहीं थी . कोई डिगरी , डिप्लोमाधारी पत्रकार नहीं था तब पत्रकारों का ओहदा और सम्मान आज से कहीं बहुत ज्यादा बेहतर था . समाज पत्रकारों को आशा की अंतिम किरण मानता था लेकिन प्रतिस्पर्धा के इस दौर में जिस तरह से खबरें प्लांट की जा रही हैं . खबरों के साथ खेल और खिलवाड हो रहा है , मीडिया हाउस अपने एजेंडे थोप रहा है . मीडिया हाउस बाजारवादी ताकतों और राजनीतिक दलों की कठपुतली बन गए हैं . हम अपनी बनाई आचार संहिता को स्वयं तहस नहस कर रहे हैं तो फिर हमें इसके दुष्परिणाम भुगतने के लिए भी तैयार रहना चाहिए .
पत्रकारिता – ये कहां आ गए हम
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