राजनीति के दुकानदारों के गाल पर तमाचा है रामायण मेला

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राष्ट्रीय रामायण मेला भवनम्

– शुरूआती दौर से ही मुस्लिम करते रहे हैं रामायण मेला में राम की सेवा मानकर काम

चित्रकूट । राजनीति के दुकानदारों के धर्म वाले प्रोडक्ट अब इतने खतरनाक हो चुके हैं कि वह यह सोचना भी पसंद नही करते कि उनके पूर्वजों ने देशवासियों को क्या ज्ञान दिया था। असद्उद्दीन ओवैशी ,राहुल गांधी, ममता बर्नजी, अखिलेश यादव सहित कितने ही नेता है जिन्हें हर एक व्यक्ति वोट नजर आता है और वह प्रयत्न करते हैं कि कैसे वह उनका वोट हथिया लें। इसके लिए उन्हें क्या जतन करना पड़ेगा इसकी कल्पना भी परे हैं। चित्रकूट में राम के आदर्शों को जन जन तक पहुंचाने के माध्यम ‘रामायण मेला‘ को भले ही डा0 लोहिया ने परिकल्पित करते समय रूपरेखा में श्रीराम के चरित्र को शांति और एकता के सूत्र में बांधने वाले देवता के रूप में प्रतिस्थापित किया हो, और सच्चाई भी यह है कि आज तक रामायण मेला अपने मूल उद्देश्यों की पूर्ति में लगा हुआ है। रामायण मेला के संकल्पक डा0 लोहिया ने रामायण मेले के आयोजन को लेकर साफ तौर पर कहा था कि इसमें गैर हिंदू की सहभागिता आवश्यक है। इस काम को मेले के आयोजक गोपाल कृष्ण करवरिया और आचार्य बाबू लाल गर्ग ने पूरी ईमानदारी से किया। मो0 सिद्दीकी चच्चा रहे हों या मो0 यूसुफ भाई, कलीमुद्दीन बेग हो या फिर मो0 इश्तियाक सभी जिस तरह से रामायण मेला की सेवा लगातार कर रहे हैं,उसको देखकर कहीं से भी यह नही लगता कि यह गैर हिंदू हैं। मुन्ने खां तो शुरूआती दौर से यहां पर आकर न केवल पांच दिनों तक रहते हैं बल्कि पूरे समय भंडारग्रह की व्यवस्था उन्हीं के हाथों में रहती है। जेनउधारी ब्राहमण हो या फिर संत महंत किसी ने इस बात को लेकर सवाल नहीं खड़ा किया कि रामायण मेला में एक मुसलमान खाने की व्यवस्था कर रहा है। यहां पर राष्ट्रीय रामायण मेला के आठवें संस्करण में आए भारत सरकार के नेशनल टेस्ट हाउस के हिंदी भाषा अधिकारी रहे सैयद महफूज हसन रिजवी ‘पुंडरीक‘ के उस कथन का उल्लेख करना आवश्यक है जिसे उन्होंने मंच पर बोला था। उन्होंने कहा था ‘ मेरा जन्म भारत की मिट्टी में हुआ है। इसलिए हिंदू मेरी संस्कृति पर मजहब मेरा इस्लाम है। भारत में पैदा होने वाला प्रत्येक बालक पहले हिंदू है, बाद में वह मुसलमान, सिख और ईसाई अनुयायाी हो सकता है। हिंदू किसी धर्म का नाम नहीं बल्कि वह देश का पर्याय है। लोग हिंदू शब्द को धर्म से जोड़कर उसकी गरिमा को संकुचित करने का प्रयास करते हैं। उन्होनें रामायण को एक सार्वभौमिक ग्रंथ बताते हुए समूची मानव जाति के हित और कल्याण की भावना से निहित बताया था। सियाराम मय सब जग जानी के अनुसार इसकी मान्यता को समस्त प्राणियों को अपना स्वरूप मानने का अर्थात वसुधैव कुटुम्बकम की उदात्त भावना का मार्ग प्रशस्त करती है।

वैसे कुछ इसी तरह के विचार 3 दिसंबर 1973 को प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल अकबर अली खान ने भी रामायण मेला के पहले संस्करण की शुरूआत करते हुए रखे थे। रामायण को इंसानियत की पूंजी बताया था। राम को जन जन का आदर्श बताया था।
वर्तमान समय रामायण मेला के आयोजन में विभिन्न कार्य देख रहे मुसलमान भाईयों की जब भावना को कुरेदा जाता है उनके मुंह से राम का नाम तो बड़ी ही श्रद्वा से निकलता है, साथ ही वह नाराजगी में यह कह उठते हैं कि भइया मोदी और योगी ने पुण्य ही नहीं किए। इसलिए वह रामायण मेला कैसे आ सकते हैं। वह कहते हैं कि जहां पर लगातार 47 साल से राम के नाम का गुंजायमान पांच दिन हो, जहां पर श्रीरामचरित मानस का अनवरत पांच दिवसीय पाठ चले, वहां तो हनुमान जी अवश्य ही मौजूद रहते हैं। आजकल की राजनीति बहुत गंदी हो गई है। लोग राम की सेवा नहीं बल्कि स्वयं सेवा में यकीन करते हैं। पहले तमाम विद्वान केवल चित्रकूट रामायण मेला में राम जी की सेवा का काम समझकर आते थे, पर अब ऐसा नही है।
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