राज्य छोटे हों तो समस्या क्या है?

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राकेश कुमार अग्रवाल

दुनिया के सबसे ताकतवर और विकसित देश अमेरिका में जब 35 करोड की आबादी में 50 राज्य हो सकते हैं तो फिर 135 करोड आबादी वाले देश में राज्यों की संख्या इतनी कम क्यों ? राज्यों के पुनर्गठन का अगर सवाल उठाया जाए तो सरकार की इसमें कोई रुचि नहीं है . सबका साथ और सबका विकास जैसी बातें भी होती हैं लेकिन हकीकत है कि बडे राज्यों में केवल उन्हीं क्षेत्रों को फोकस किया जाता है या तो जिस जगह का सरकार का मुखिया हो या फिर सत्ता की चाबी ऐसे दल के पास हो जो सरकार के सत्ता संतुलन को बना और बिगाड सकता हो .
आजादी के बाद 1956 में हुए पुनर्गठन को देश का मुख्य पुनर्गठन माना जाता है हालांकि इसके पहले राज्यों के चार पुनर्गठन हुए हैं . पहला पुनर्गठन आजादी की ठीक 4 साल बाद हुआ जब ब्रिटिश इंडिया की रियासतों ग्वालियर , इंदौर और बड़ौदा रियासत को मिलाकर मध्य भारत बना . जयपुर , जोधपुर रियासत से राजस्थान बना . पटियाला , नाभा व कपूरथला रियासत से पंजाब बना इसे पहला पुनर्गठन माना जा सकता है . 1956 में हुए पुनर्गठन को दूसरा पुनर्गठन कहा जा सकता है . तीसरे पुनर्गठन में मुम्बई का विभाजन कर महाराष्ट्र और गुजरात में बांटा गया . मद्रास का मालाबार वाला क्षेत्र केरल में चला गया बाकी भाग आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में विभाजित हुआ . पंजाब के विभाजन के बाद हरियाणा , हिमाचल प्रदेश और पंजाब राज्य बना . चौथा पुनर्गठन पूर्वोत्तर में हुआ जिसके कारण सेवन सिस्टर्स के रूप में असम , मिजोरम , मेघालय , नागालैण्ड , त्रिपुरा समेत सात राज्य अस्तित्व में आए .

1956 का पुनर्गठन अंतिम है और इसके बाद नए सिरे से पुनर्गठन की आवश्यकता नहीं है यह कहना या सोचना देश के समग्र विकास की दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है . पुनर्गठन के समय भाषा , आबादी , क्षेत्र , भौगोलिक सुगमता के अलावा सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान को भी आधार बनाने की जरूरत है . आज हमारे यहां छोटे राज्यों की वकालत की जा रही है . बुंदेलखंड , पूर्वांचल , हरित प्रदेश, मिथिलांचल , विदर्भ , कोंकण , बोडोलैंड , गोरखालैंड जैसे तमाम राज्यों की मांगें हैं .

छोटे राज्यों की मांग या बंटवारे की मांग के पीछे बडा कारण यही है कि जिन राज्यों की आबादी ज्यादा है देश में उनका प्रतिनिधित्व ज्यादा है . और फिर समग्र विकास की बजाए सरकार का मुखिया रियासत समझकर राज्य को चलाने लगता है . जबकि अमेरिका जैसे देश में भी चाहे राज्य छोटा हो या बड़ा दो प्रतिनिधि ही चुनकर आते हैं . ऐसे में सभी राज्यों की सत्ता में भागीदारी एक समान है .

छोटे राज्य की मांग को सिरे से खारिज नहीं किया जाना चाहिए . उनकी मांग को हमें समझना होगा ऐसा कतई नहीं होना चाहिए कि उनकी मांग को हम राष्ट्र विरोधी घोषित कर दें . दूसरी बात है कि जनता और जनप्रतिनिधि के बीच संवाद बना रहे . कमजोर और विपन्न क्षेत्र को सशक्त बनाने के बजाए उसको मोहताज बनाए रखना नया राजनीतिक शगल बन गया है . किस तरह की नीतियों की दरकार है जिससे विकास का पहिया दौडे इस बारे में सोच विचार ही नहीं किया जाता . जन प्रतिनिधि इस बात में खुश हो जाते हैं कि सत्ता की नजदीकी के कारण उन्हें कुछ बडे प्रोजेक्ट मिल जाते हैं . उनका भविष्य का हिसाब बन जाता है . वे सत्ता की मलाई के हिस्सेदार बन जाते हैं . जबकि वे संगठन और पार्टी में होते हुए बडी आवाज बनकर मुखरता पूर्वक बात को रखकर छोटे राज्य की पैरवी कर सकते हैं .

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